क्यों कराते हो मृत्युभोज ?
क्यों कराते हो मृत्युभोज ?
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लेखक - मनोज कुमार जाटवरवर्तमान समय में, यह एक बोझिल प्रथा बन गई है, जहाँ गरीब परिवार कर्जदार हो जाते हैं क्योंकि वे सामाजिक दबाव के कारण क्षमता से अधिक खर्च करते हैं, भोजन कराने वाले व्यक्ति और परिवार का मन दुख से पीडित होता है उस अवस्था मे उसके घर जबर्दस्ती डरा धमका कर खाना कैसे खा सकते हैं ?
"सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः"।
अर्थात् भोजन तभी ग्रहण करना चाहिए जब खिलाने वाले और खाने वाले दोनों का मन प्रसन्न हो।
मृत्यु के समय परिवार पर दुःख का पहाड़ होता है और सभी के मन में पीड़ा होती है, ऐसे में अन्न ग्रहण करना ऊर्जा का विनाश करता है।
मृत्युभोज, अर्थ रहित कार्य होता है जिसका कोई तार्किक मतलब नही होता, न इसमे कोई सामाजिक सहयोग कि भावना होती है और न कोई सामाजिक विकास से ताल्लुकात, फ़िर इस अर्थ विहिन कार्य को आयोजित करने का क्या औचित्य है? यह कौन सी संस्कृति है जिसे मजबुरन सभी के उपर थोप दिया जाता है? एक समाजशास्त्री ब्रोनिस्लो मैलिनोव्स्कि ने कहा था : कोई भी संस्कृति तभी फ़लिभूत या अस्तित्व मे होती है अगर वह व्यक्ति कि आवश्यकताओ कि पूर्ति करे, यह सामाजिक कृत्य कौन सी मानविय आवश्यकताओ कि पूर्ति कर रहा है? अगर कोई संस्कृति व्यक्ति कि आवश्यकताओ कि पूर्ति नही करता है तो वह एक महत्वहीन बोझिल प्रथा बन जाती है जिससे व्यक्ति और समाज कि आवश्यकता कि पूर्ति के जगह आर्थिक स्थिति को कमजोर और प्रभावित करती है.
मृत्यु भोज कराने वाले सम्बन्धित व्यक्ति अगर स्वेच्छा जाहिर करता है तो उसकी बातें मान्य होना चाहिए अगर मान्य नही होता है तो यह कृत्य समाज द्वारा सम्बन्धित व्यक्ति को मानसिक प्रताड़ित करना है जो कि गैर कानूनी है.
कानूनी प्रतिबंध:
कुछ राज्यों में मृत्युभोज को दंडनीय और अनुचित माना गया है. उदाहरण के लिए, राजस्थान पुलिस ने इसे मानवीय दृष्टिकोण से अनुचित और दंडनीय बताया है, और हरियाणा की खाप पंचायतों ने भी इस पर रोक लगाई है,

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